शरणागति
जीवन बीत गया सब यूँ ही, भला न कुछ कर पाया
तेरी मेरी करके ही बस, सारा समय बिताया
कहीं हुआ सम्मान जरा तो, अहंकार मन आया
कितना बड़ा आदमी हूँ मैं, सोच व्यर्थ इठलाया
जड़ चेतन में तूँ ही तू है, फिर भी क्यों भरमाया
किया एक से राग, और दूजे को ठुकराया
जीवन की संध्या में समझा, व्यर्थ मोह सब माया
अपना कोई नहीं यहाँ पर, शरण आपकी आया