वन विहार
वन में रुचिर विहार कियो
शारदीय पूनम वृन्दावन, अद्भुत रूप लियो
धरी अधर पे मुरली मोहन स्वर लहरी गुंजाई
ब्रज बालाएँ झटपट दौड़ी, सुधबुध भी बिसराई
छलिया कृष्ण कहे सखियों को, अनुचित निशि में आना
लोक लाज मर्यादा हेतु, योग्य पुनः घर जाना
अनुनय विनय करें यों बोली, ‘तुम सर्वस्व हमारे’
‘पति-पुत्र घर सब कुछ त्यागा, आई शरण तुम्हारे’
कहा श्याम ने ‘ऋणी तुम्हारा, मुझको जो अपनाया’
भ्रमण किया उनके संग वन में, मन का मोद बढ़ाया
शीतल मन्द समीर बह रहा, लता पुष्प विकसाये
करें श्याम आलिंगन उनको, मृदुल हास्य बिखराये
हुआ गर्व सम्मानित होकर, लगा श्याम हैं वश में
अन्तर्धान हुवे बनवारी, लिये राधिका सँग में
करने लगी विलाप गोपियाँ, भटक रही वन-वन में
‘हाय! श्यामसुन्दर ने हमको, त्याग दिया कानन में’
उधर मदनमोहन करते थे, प्रणय-केलि राधा से
मान हो गया कहा ‘प्राणधन, क्लांत हुई चलने से’
बोले मोहन-‘चढ़ जाओ, कंधे पर प्राण-पियारी’
लगी बैठने ज्यों ही तब तो, लुप्त हुवे बनवारी
हुआ न सहन वियोग श्याम का, जिनसे प्रेम अगाधा
करते खोज गोपियाँ आई, देखा मूर्छित राधा
विजन झले फिर धैर्य बँधाया, हुई चेतना तब तो
करने लगी विलाप पुकारें, ‘मिलो प्राणपति अब तो’
रह न सके दुख दूर किया, प्रकटे नयनों के तारे
करुणासिक्त वचन में बोली, ‘कहाँ छिपे थे प्यारे’
नवल कृष्ण की वन-क्रीड़ा जो, श्रवण करे श्रद्धा से
करे प्रचार धरा पे उनको मुक्ति मिले पापों से