विरथ व्यथा
उधो वो साँवरी छवि ने, हमारा दिल चुराया है
बजाकर बाँसुरी मीठी, सुनाकर गीत गोविन्द ने
रचाकर रास कुंजन में, प्रेम हमको लगाया है
छोड़ कर के हमें रोती, बसे वो मधुपुरी जाकर
खबर भी ली नहीं फिर के, हमें दिल से भुलाया है
हमारा हाल जाकर के, सुनाना श्यामसुन्दर को
वो ‘ब्रह्मानन्द’ मोहन रूप को, मन में बसाया हैकर्म विपाक
काहे को सोच करे मनवा तू, भाग्य लिखा सो होता प्यारे
होनहार कोई मेट न पाये, कोटि यतन करके सब हारे
हरिश्चन्द्र, श्रीराम, युधिष्ठिर, राज्य छोड़ वनवास सिधारे
जैसी करनी वैसी भरनी, शत्रु न मित्र न कोई हमारे
‘ब्रह्मानंद’ सुमिर जगदीश्वर, क्लेश दुःख विपदा को टारें