स्वार्थी संसार
तुम बिन प्यारे कहुँ सुख नाहीं
भटक्यो बहुत स्वाद-रस लम्पट, ठौर ठौर जग माहीं
जित देखौं तित स्वारथ ही की निरस पुरानी बातें
अतिहि मलिन व्यवहार देखिकै, घृणा आत है तातें
जानत भले तुम्हारे बिनु सब, व्यर्थ ही बीतत सांसे
‘हरिचन्द्र’ नहीं टूटत है ये, कठिन मोह की फाँसे