विरह व्यथा
थाने काँईं काँईं समझाँवा, म्हारा साँवरा गिरधारी
पुरब जनम की प्रीत हमारी, अब नहीं जाय बिसारी
रोम रोम में अँखियाँ अटकी, नख सिख की बलिहारी
सुंदर बदन निरखियो जब ते, पलक न लागे म्हाँरी
अब तो बेग पधारो मोहन, लग्यो उमावो भारी
‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, सुधि लो तुरत ही म्हारी