व्यथित गोपियाँ
तन मन से गोपियाँ प्रीति करें, यही सोच कर प्रगटे मोहन
कटि में पीताम्बर वनमाला और मोर मुकुट भी अति सोहन
कमनीय कपोल, मुस्कान मधुर, अद्वितीय रूप मोहन का था
उत्तेजित कर तब प्रेम भाव जो परमोज्ज्वल अति पावन था
वे कण्ठ लगे उल्लास भरें, श्रीकृष्ण करें क्रीड़ा उनसे
वे लगीं सोचने दुनियाँ मे, कोई न श्रेष्ठ ज्यादा हमसे
जब मान हुआ गोपीजन को, अभिमान शान्त तब करने को
सहसा हरि अंतर्ध्यान हुए, दारुण दुख हुआ गोपियों को