भीष्मजी द्वारा स्तवन
समर्पण करूँ बुद्धि बल मेरा
और न कुछ भी दे पाऊँ प्रभु, जो भी है वह तेरा
मेरा मन आबद्ध जगत् में, घट घट के प्रभु वासी
दो प्रबोध हे त्रिभुवन-सुन्दर! वृन्दावन के वासी
पंकज-नयन, तमाल-वर्ण, आवृत अलकावली मुख पे
पीत वसन रवि-किरणों के सम, शोभित श्यामल तन पे
अनुपम शोभा कुरुक्षेत्र में, पार्थ-सखा की निखरी
अश्व-टाप से उड़ी हुई, रज थी कपोल पे बिखरी
कवच धरे मोहन पे मैंने, तीक्ष्ण तीर जब छोड़े
आहत होकर रक्त सने, हरि चक्र हाथ ले दौड़े
पीताम्बर था गिरा धरा पर, अतुलनीय शोभा थी
जीवन का फल प्राप्त हुआ, बस यही एक आशा थी
भगत-बछलता की सीमा थी, मुझ पे किया निहोरा
इसी भाँति ब्रज बालाओं का, तुमने था चित चोरा
हुई अग्र-पूजा थी वे ही, प्रगटे सम्मुख मेरे
शरणागत हूँ उन्हीं श्याम-सुन्दर, चरणों में तेरे
बनों विषय मेरे नयनों के, हे श्रीकृष्ण मुरारी
भीष्म पितामह की स्तुति ये अद्भुत अति सुखकारी