पूजा
रहते हो साथ नित्य प्रभुजी, आठ प्रहर दिन रात ही
क्यों देख नहीं पाते तुमको, यह अचरज मुझको खलता ही
मैं बैठ के नित्य ही आसन पर, लेकर सामग्री हाथों में
पूजा करता हूँ विधिवत ही, तब भी दर्शन नहीं पाता मैं
आरती दीप से करता हूँ, स्तुति गान भी हूँ गाता
तब भी तुम क्यों न पिघलते हो, अनुभव भी नहीं मुझे होता
यह कैसा खेल तुम्हारा है, कुछ नहीं समझ में भी आता
लगता अभाव श्रद्धा का ही, जिसकी न पूर्णता कर पाता