गोपी की प्रीति
मैं भूल गई सखि अपने को
नित्य मिलन का अनुभव करती, जब से देखा मोहन को
प्रात: संध्या दिवस रात का, भान नहीं रहता मुझको
सपने में भी वही दिखता, मन की बात कहूँ किसको
कैसी अनुपम मूर्ति श्याम की, कैसा मनहर उसका रूप
नयन हुए गोपी के गीले, छाया मन सौन्दर्य अनूप
रही न सुधि उसको अपनी कुछ, चूर्ण हुआ सारा अभिमान
लोकलाज मर्यादा का तब, रहा न उसको कुछ भी भान