वियोग व्यथा
कहीं मैं ऐसै ही मरि जैहौं
इहि आँगन गोपाल लाल को कबहुँ कि कनियाँ लैहौं
कब वह मुख पुनि मैं देखौंगी, कब वैसो सुख पैंहौं
कब मोपै माखन माँगेगो, कब रोटी धरि दैंहौं
मिलन आस तन प्राण रहत है, दिन डस मारग चैहौं
जौ न ‘सूर’ कान्ह आइ हैं तो, जाइ जमुन धँसि जैहौं