मनोवेग
कहा कहति तू मोहि री माई
नंदनँदन मन हर लियो मेरौ, तब तै मोकों कछु न सुहाई
अब लौं नहिं जानति मैं को ही, कब तैं तू मेरे ढ़िंग आई
कहाँ गेह, कहँ मात पिता हैं, कहाँ सजन गुरुजन कहाँ भाई
कैसी लाज कानि है कैसी, कहा कहती ह्वै ह्वै रिसहाई
अब तौ ‘सूर’ भजी नन्दलालै, के अपशय के होइ बड़ाई