विरह व्यथा
जोगिया, छाइ रह्यो परदेस
जब का बिछड़्या फेर न मिलिया, बहुरि न दियो सँदेस
या तन ऊपर भसम रमाऊँ, खार करूँ सिर केस
भगवाँ भेष धरूँ तुम कारण, ढूँढत फिर फिर देस
‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, जीवन व्यर्थ विशेष
विरह व्यथा
जोगिया, छाइ रह्यो परदेस
जब का बिछड़्या फेर न मिलिया, बहुरि न दियो सँदेस
या तन ऊपर भसम रमाऊँ, खार करूँ सिर केस
भगवाँ भेष धरूँ तुम कारण, ढूँढत फिर फिर देस
‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, जीवन व्यर्थ विशेष