गौधरण
चिन्तन करतीं सदा गोपियाँ, मुरलीधर का
रम जातीं कर गान श्याम की लीलाओं का
जभी चराने गौंओं को वे वन में जाते
उनकी चर्चा करें, शाम तक जब वे आते
अरी सखी! वंशी में जब वे स्वर को भरते
सिद्ध पत्नियों के मन को नन्दनन्दन हरते
मोर पंख का मुकट श्याम के मस्तक सोहे
अलकों में फूलों के गुच्छे मन को मोहे
पुष्पों की वन माल कण्ठ में अनुपम लगती
केसर-खौर प्रिय के ललाट पर ही तो फबती
कितना सुन्दर रूप श्याम का कहा न जाये
दर्शन करने हरिण गौ समूह भी दौड़े आये
कान खड़े कर वंशी ध्वनि को सुने मग्न हो
मुँह की घास न खा पाये, ऐसे निश्चल हो
वंशी बजती मेघ तभी मन्द मन्द गरजते
और गगन से देव पुष्प की वर्षा करते
चले आ रहे वन से वे सखि, बंशी बजाते
इसी भाँति उन प्रेयसियों के दिन पूरे होते