वैराग्य
बाला, मैं वैरागण हूँगी
जिन भेषाँ म्हारो साहिब रीझे, सो ही भेष धरूँगी
सील संतोष धरूँ घट भीतर, समता पकड़ रहूँगी
जाको नाम निरंजन कहिए, ताको ध्यान धरूँगी
गुरु के ज्ञान रगूँ तन कपड़ा, मन-मुद्रा पैरूँगी
प्रेम-प्रीत सूँ हरि-गुण गाऊँ, चरणन लिपट रहूँगी
या तन की मैं करूँ कींगरी, रसना नाम रटूँगी
‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, हरि चरणाँ चित दूँगी