प्रभु संकर्षण वंदना
अनन्त गुणों के जो सागर, प्रभु संकर्षण को नमस्कार
मस्तक उनके जो हैं सहस्त्र, एक ही पर पृथ्वी का अधार
देवता असुर गन्धर्व, सिद्ध, मुनिगण भी पाये नहीं पार
एक कान में कुण्डल जगमगाय, शोभित है अंग पे नीलाम्बर
कर हल की मठू पर रखा हुआ, वक्ष:स्थल पे वैजन्ती हार
भगवान कृष्ण के अग्रज की लीला का मन में धरें ध्यान
जो गौर वर्ण बलराम प्रभु, हम को करुणा का करें दान