Deh Dhare Ko Karan Soi
अभिन्नता देह धरे कौ कारन सोई लोक-लाज कुल-कानि न तजिये, जातौ भलो कहै सब कोई मात पित के डर कौं मानै, सजन कहै कुटुँब सब सोई तात मात मोहू कौं भावत, तन धरि कै माया बस होई सुनी वृषभानुसुता! मेरी बानी, प्रीति पुरातन राखौ गोई ‘सूर’ श्याम नागारिहि सुनावत, मैं तुम एक नाहिं हैं दोई
Karan Gati Tare Naahi Tare
कर्म-विपाक करम गति टारे नाहिं टरे सतवादी हरिचंद से राजा, नीच के नीर भरे पाँच पांडु अरु कुंती-द्रोपदी हाड़ हिमालै गरे जग्य कियो बलि लेण इंद्रासन, सो पाताल परे ‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, विष से अमृत करे
Trashna Hi Dukh Ka Karan Hai
तृष्णा तृष्णा ही दुःख का कारण है इच्छाओं का परित्याग करे, संतोष भाव आ जाता है धन इतना ही आवश्यक है जिससे कुटंब का पालन हो यदि साधु सन्त अतिथि आये, उनका भी स्वागत सेवा हो जो सुलभ हमें सुख स्वास्थ्य कीर्ति, प्रारब्ध भोग इसको कहते जो झूठ कपट से धन जोड़ा, फलस्वरूप अन्ततः दुख […]