Deh Dhare Ko Karan Soi
अभिन्नता देह धरे कौ कारन सोई लोक-लाज कुल-कानि न तजिये, जातौ भलो कहै सब कोई मात पित के डर कौं मानै, सजन कहै कुटुँब सब सोई तात मात मोहू कौं भावत, तन धरि कै माया बस होई सुनी वृषभानुसुता! मेरी बानी, प्रीति पुरातन राखौ गोई ‘सूर’ श्याम नागारिहि सुनावत, मैं तुम एक नाहिं हैं दोई
Deh Dhara Koi Subhi Na Dekha
दुःखी दुनिया देह धरा कोई सुखी न देखा, जो देखा सो दुखिया रे घाट घाट पे सब जग दुखिया, क्या गेही वैरागी रे साँच कहूँ तो कोई न माने, झूट कह्यो नहिं जाई रे आसा तृष्णा सब घट व्यापे, कोई न इनसे सूना रे कहत ‘कबीर’ सभी जग दुखिया, साधु सुखी मन जीता रे
Jo Paanch Tatva Se Deh Bani
तत्व चिन्तन जो पाँच तत्व से देह बनी, वह नाशवान ऐसा जानो जीना मरना तो साथ लगा, एक तथ्य यही जो पहचानो परमात्मा ही चेतन स्वरूप और जीव अंश उसका ही है सच्चिदानंद दोनों ही तो, निर्गुण वर्णन इसका ही है जैसे की सींप में रजत दिखे, मृगतृष्णा जल होता न सत्य सम्पूर्ण जगत् ही […]