नश्वर माया
मन पछितै है अवसर बीते
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, वचन अरु हीते
सहसबाहु, दसवदन आदि नृप, बचे न काल बलीते
हम-हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते
सुत-बनितादि जानि स्वारथ रत, न करू नेह सबही ते
अंतहुँ तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अब ही ते
अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते
बुझै न काम-अगिनि ‘तुलसी’ कहुँ, विषय-भोग बहु घीते