श्रीकृष्ण छटा
मेरो मन नँद-नन्दन जू हर्यो
खिरक दुहावन जात रही मैं, मारग रोक रह्यो
वह रूप रसीलो ऐसो री, नित नूतन मन ही फँस्यो
वह निरख छटा अब कित जाऊँ, हिरदै में आन बस्यौ
तेहि छिन ते मोहिं कछु न सुहावै, मन मेरो लूट लियो
त्रिभुवन-सुन्दर प्रति प्रेम सखी, है अटल न जाय टर्यो