विरह व्यथा
स्याम बिनु बैरिन रैन भई
काटे कटत न घटत एक पल, सालत नित्य नई
पल भर नींद नयन नहिं आये, तारे गिनत गई
उलटि-पुलटि करवट लैं काटूँ, ऐसी दशा भई
कहा बात मैं कहूँ गात की, जात न कछु कही
अँखियन में पावस सी छाई, जब पल रूकत नहीं
भये निठुर ऐसे नँदनंदन, सुधि हूँ नाहिं लई
कहा करुँ सजनी मोहन वश, ऐसी दशा भई