शरणागति
हरिजू! हमरी ओर निहारो
भटकि रहे भव-जलनिधि माँही, पकरो हाथ हमारो
मत्सर, मोह, क्रोध, लोभहु, मद, काम ग्राह ग्रसि डारो
डूबन चाहत नहीं अवलम्बन, केवट कृष्ण निकारो
बन पाषान परे इत उत हम, चरननि ठोकर मारो
केवल किरपा प्रभु ही सहारो, नाथ न निज प्रन टारो