प्रगाढ़ प्रीति
मैं गिरिधर के घर जाऊँ
गिरिधर म्हाँरो साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ
रैन पड़ै तब ही उठ जाऊँ, भोर भये उठि आऊँ
रैन दिना वाके सँग खेलूँ, ज्यूँ त्यूँ ताहि रिझाऊँ
जो पहिरावै सोई पहिरूँ, जो दे सोई खाऊँ
मेरी उनकी प्रीति पुरानी, उन बिन पल न रहाऊँ
जहाँ बैठावे तितही बैठूँ, बेचे तो बिक जाऊँ
‘मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, बार बार बलि जाऊँ