लीला
मोहन काहे न उगिलौ माटी
बार-बार अनरुचि उपजावति, महरि हाथ लिये साँटी
महतारी सौ मानत नाहीं, कपट चतुरई ठाटी
बदन उघारि दिखायौ आपनो, नाटक की परिपाटी
बड़ी बेर भई लोचन उघरे, भरम जवनिका फाटी
‘सूर’ निरखि नंदरानि भ्रमति भई, कहति न मीठी खाटी
लीला
मोहन काहे न उगिलौ माटी
बार-बार अनरुचि उपजावति, महरि हाथ लिये साँटी
महतारी सौ मानत नाहीं, कपट चतुरई ठाटी
बदन उघारि दिखायौ आपनो, नाटक की परिपाटी
बड़ी बेर भई लोचन उघरे, भरम जवनिका फाटी
‘सूर’ निरखि नंदरानि भ्रमति भई, कहति न मीठी खाटी