अभिन्नता
देह धरे कौ कारन सोई
लोक-लाज कुल-कानि न तजिये, जातौ भलो कहै सब कोई
मात पित के डर कौं मानै, सजन कहै कुटुँब सब सोई
तात मात मोहू कौं भावत, तन धरि कै माया बस होई
सुनी वृषभानुसुता! मेरी बानी, प्रीति पुरातन राखौ गोई
‘सूर’ श्याम नागारिहि सुनावत, मैं तुम एक नाहिं हैं दोई