। । श्री हरिः । । 
उपनिषद में भज धातु से भजन और भक्ति निष्पन्न किया जाता है। इस तरह भजन का अर्थ ही भक्ति है। भजनों में भगवान के प्रति संत कवियों के उदगार ही छन्द रूप में प्रकट हुए हैं जिन्हें तन्मय होकर गाने व उसमें व्याप्त भगवान् के ऐश्वर्य एवं मधुर लीलाओं को श्रवण करने से रसोद्रेक होता है। इस भाव के उदय होते ही ब्रजेन्द्र-नंदन के अप्रतिम सौन्दर्य का रसपान करने के लिए मन आतुर हो जाता है। श्यामसुन्दर की मुरली का स्वर, नूपुर की रुनझुन सुनाई पड़ने लगती है, दर्शन की व्याकुलता होती है- ‘प्यारे तुम बिन रह्यो न जाय’-मीराँ । उनका स्वरूप ही ऐसा है वे रस स्वरूप है- ‘रसो वैसः’  उनके चरित्र मधुरातिमधुर है जिसमें बिना किसी प्रयोजन के परमहंस ब्रह्मज्ञानी मुनिजन भी मुग्ध हो जाते हैं। भजनं नाम रसनम् – गोपाल पूर्णतापिन्यूपनिषद् ।
अपने प्रेमास्पद भगवान की महिमा व लीला का गुणगान करते करते प्रेम और श्रद्धा के अतिरेक से ईश्वर के प्रति अलौकिक अनुराग ही भक्ति है, जो जीव को परम पुरुषार्थ तक ले जाती है।
संत कवियों की वाणी की हमारी संस्कृति पर अमिट छाप है जो भगवत्लीला की मनमोहिनी झाँकी की रसानुभूति कराने में समर्थ है अतः इन भजनों व कीर्तनों के संकलन और सृजन में भारतीय संस्कृति का भक्तिमय स्वरुप साकार हुआ है। संकलन को अधिक उपयोगी बनाने हेतु सूर-तुलसी-मीरा के पदों व भजनों के अतिरिक्त वैदिक स्तवन, पुण्यश्लोक स्तोत्र, मंगलाचरण, देवताओं का स्मरण, नवग्रह स्तोत्र, पुष्पांजली, मानस पूजा को इसमें सम्मिलित किया गया है जो संस्कृत में हैं इनका हिन्दी भाषा में सरल अर्थ भी साथ ही दिया गया है।
अपनी त्रुटियों के लिये क्षमा माँगते हुए यह संग्रह भगवान श्रीकृष्ण के पाद पद्मों में समर्पित करता हूँ। उनकी कृपा प्राप्त कर सकूँ यही मेरी आन्तरिक अभिलाषा है ।
अंत में निवेदन है कि जो कुछ प्रस्तुत किया जा रहा है वह भगवान का असीम अनुग्रह ही है और सब तो निमित्त मात्र है । यह मेरा सौभाग्य ही है कि इधर कुछ महीने इस पुस्तक के सम्पादन हेतु सोच विचार में व्यतीत हुए।
-श्यामलाल तापड़िया
गुरु पूर्णिमा, वि. सं. २०६६